The Detrimental Impact of One Nation One Election on Indian Democracy

वन नेशन वन इलेक्शन के द्वारा जो अर्थ एक देश में हर स्तर के चुनावों को एक साथ करने का है, इस पर मोदी सरकार का जोर है। लेकिन इसके लागू होने से अनेक प्रश्न उठ रहे हैं। चुनाव आयोग के पास ईवीएम मशीनों की कमी होने से यह प्रक्रिया चुनौतीपूर्ण साबित हो सकती है। इसके साथ ही यह भी देखा जा रहा है कि संविधान में संशोधन करने में भी विवाद हो सकता है। इससे छोटे राजनीतिक दलों को प्रभावित होने की संभावना है, जो स्थानीय मुद्दों पर लड़ते हैं। चुनावों में लागत और तकनीकी समस्याएं भी उठ सकती हैं, जिससे यह प्रक्रिया और भी जटिल हो सकती है।

Feb 23, 2024 - 18:08
Mar 1, 2024 - 16:56
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The Detrimental Impact of One Nation One Election on Indian Democracy

वन नेशन वन इलेक्शन से भारत को होगा यह नुकसान

वन नेशन वन इलेक्शन जिसका मतलब है एक देश एक चुनाव, हर पांच साल में ग्राम पंचायत से लेकर, विधानसभा और आम चुनाव एक साथ हों।  इस मुद्दे पर मोदी सरकार जोर दे रही है। बता दें कि मोदी सरकार ने इस विषय पर एक कमेटी का गठन किया है. जिसकी अध्यक्षता पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद करेंगे। मोदी सरकार ने यह फैसला 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने के एक दिन बाद लिया था। आज हम वन नेशन वन इलेक्शन से देश को क्या नुकसान होगा इस विषय पर चर्चा करेंगे।

नोटिफिकेशन क्या है जानें?

'वन नेशन वन इलेक्शन' पर कमेटी के गठन के बाद इस पर नोटिफिकेशन जारी किया जाएगा। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्ष में गठित कमेटी के इस नोटिफिकेशन में एक देश एक चुनाव की शर्तें तय की जाएगी।

जानिए क्या कहता है अनुच्छेद 83 और 172?

तो चलिए जानते है अनुच्छेद 83 और 172 क्या कहता है, इसमें कहा गया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभा का कार्यकाल पाँच साल का होगा। यदि इन्हें पहले भंग न किया जाए, तथा अनुच्छेद 356 के तहत ऐसी परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हो सकती हैं जिसमें विधानसभा पहले भी भंग की जा सकती हैं। इसलिए केंद्र और राज्य सरकार का कार्यकाल पूरा होने से पहले सरकार गिरने की स्थिति में एक देश एक चुनाव की योजना देश के लोकतंत्र के हित के लिए खरी उतरेगी के नहीं यह देखना होगा ।

इस तरह के बड़े बदलाव के लिये संविधान में संशोधन करने से न केवल विभिन्न स्थितियों और प्रावधानों पर व्यापक तौर पर विचार करने की आवश्यकता होगी, बल्कि ऐसे बदलाव भविष्य में किसी प्रकार के संवैधानिक संशोधनों के लिए एक चिंताजनक साबित हो सकता है। अगर वन नेशन वन इलेक्शन होता है तो शायद यह सभी अधिकार छीन लिए जाएंगे।

चुनाव जीतने वाली राजनीतिक पार्टी सदन में बहुमत या विश्वास मत खो देती है और विपक्ष के पास नई सरकार बनाने के लिए संख्या के अनुसार बहुमत नहीं है, तो लोगों के पास चुनने के लिए दो अलोकतांत्रिक विकल्प बचे होंगे क्योंकि चुनाव दोबारा नहीं कराए जा सकते। 

वन नेशन वन इलेक्शन जनता के सामान्य मुद्दों को नहीं करेंगा प्रभावित?

वन नेशन वन इलेक्शन पर बड़े- बड़े राजनीतिक दलों की राय है कि एक देश एक चुनाव से राषट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाएगा, वहीं स्थानीय मुद्दे दब जाएंगे। स्थानीय समस्याओं का समाधान नहीं हो पाएगा जिससे आम नागरिकों का ही नुकसान होगा। अगर हम बात करें भारत की तो कई राज्यों में छोटी- छोटी पार्टियां है जो जन मुद्दों पर चुनाव लड़ती है। छोटे राजनीति दलों को चुनाव खर्च और चुनाव रणनीति के मामले में राष्ट्रीय पार्टियों के  साथ प्रतिस्पर्धा करने में भी असमर्थ होंगे।अगर वन नेशन वन इलेक्शन आया तो छोटे राजनीतिक दल कमजोर पड़ जाएंगे।  कुछ लोग एक देश, एक चुनाव को देश के संघीय ढांचे के विपरीत और संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक बताते हैं. इससे कुछ विधानसभाओं की मर्जी के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जाएगा, जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है। 

दुगनी तादाद में पड़ेगी ईवीएम मशीनों की जरुरत

सबसे बड़ी समस्या ये है कि अभी के समय ही ईवीएम मशीन या तो कम पड़ जाती है या मशीन में तकनीकी खराबी आ जाती है। जिससे चुनाव की प्रक्रिया बाधित होती है। जिससे मतदाता वोट डालने में दिलचस्पी नहीं लेते है, और  अगर अब वन नेशन वन इलेक्शन हो गया तो बड़ी संख्या में ईवीएम मशीन का निर्माण और रखरखाव करना काफी बड़ी समस्या होगी। तत्काल की ईवीएम की स्थिति बताऊ तो अब तक तो एक चुनाव के बाद ईवीएम का इस्तेमाल महीनों बाद होने वाले दूसरे राज्य के विधानसभा या अन्य चुनावों में होता है। लेकिन एक साथ चुनाव के लिए डबल मशीनों की जरूरत होगी. यानी इसे लागू करना इतना आसान नहीं होगा। 

चुनाव आयोग के पास ईवीएम मशीन की कमी

एक राष्ट्र, एक चुनाव को लागू करने में सरकार को काफी वित्तीय बोझ झेलना पड़ेगा। 25 लाख  ईवीएम मशीनों और इतनी ही संख्या में वोटर वैरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल की  आवश्यकता पड़ेगी। अगर हाल ही का रिकॉर्ड बताए तो  चुनाव आयोग के पास  केवल 12 लाख ईवीएम मशीन मौजूद है। चुनाव आयोग के अनुसार ईवीएम मशीन को बनाने में एक साल या उससे ज्यादा का समय लग सकता है। क्योंकि ईवीएम मशीन बनाने में भारत के पास सेमीकंडक्टर की कमी को बताया जा रहा है. अगर एक राष्ट्र एक चुनाव होता है तो केवल चुनावों में इस्तेमाल किए जाने वाली मशीनों पर 5200 करोड़ का खर्चा आएगा।

 खाली लोकसभा चुनाव में खर्च हुए 880 करोड़ रुपये

सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 1999 में जब लोकसभा चुनाव हुए थे तो इस पूरी प्रक्रिया में कुल 880 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. वहीं अगर बात करें इसके बाद 2004 के चुनाव में ये खर्च बढ़कर 1200 करोड़ हो गया। बता दें कि 2019 के चुनाव के आंकड़ों के मुताबिक करीब 6500 करोड़ रुपये चुनाव में  खर्च किए गए थे। वहीं आप कल्पना कर सकते है अगर पूरे देश में एक ही समय पर चुनाव हो तो कितना पैसा खर्च हो सकता है, क्योंकि चुनाव एक बार होंगे हर 5 साल में तो खर्च का आंकड़ा कई हजारों करोड़ों रुपये पार कर जाएगा। 

विधानसभा चुनाव के प्रचार में खर्च हुए 500 करोड़ रुपये

पांच राज्यों के 2022 विधानसभा में चुनावों को लेकर चुनाव आयोग ने रिपोर्ट पेश की है. जिसमें  पंजाब, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, गोवा और उत्तराखंड में हुए चुनाव के आंकड़ों के अनुसार 500 करोड़ से ज्यादा की रकम चुनाव प्रचार में ही खर्च हो गई थी। इन चुनावों में  भाजपा ने 340 करोड़ रुपए और कांग्रेस ने 190 करोड़ रुपए खर्च किए थे. यह आंकड़ों को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हो कि अगर भारत में एक ही समय पर सभी चुनाव करवाए जाते है तो ये चुनाव कितना ज्यादा खर्चीला होगा।

संविधान में संशोधन करना जटिल

पूरे भारत में एक समय पर एक साथ चुनाव हो इस प्रक्रिया में काफी चुनौतियां है. इसके लिए राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के साथ जोड़ने के लिए संवैधानिक संशोधन करने होंगे। इसके अलावा, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ अन्य संसदीय प्रक्रियाओं में भी संशोधन करना होगा। पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद- 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करना शामिल है।

- JYOTI KUMARI  

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